पात झर गए शाखों से वृक्ष ठूंठ से खड़े हुए
बेकल सब विहग चमन के इन्हें हरित तरु चाहिए ।
बाजारों को नहीं बक्शा घर में भी घुस गए यवन
इन अलेक्जेंद्रों से लड़ने कोई सम्राट पुरु चाहिए ।
सत्तासीन नशे में हैं जूं नहीं रेंग रही कानों पर
कान खोलने को बहरों के भगत सिंह राजगुरु चाहिए ।
भगवान के ठेकेदारों तुम और न अब भरमाओ यूं
ना मंदिर में और ना पोथी में हमें खुदा रूबरु चाहिए ।
जिस्मों की क्या बात कहें रूहें तक भी जल रही
शीतल जल मिल जाए बस अब नहीं मरु चाहिए ।
युवा हुए हैं दिशाहीन चौराहों पर भटक रहे
लक्ष्य बताने को इन्हें इंटरनेट नहीं गुरु चाहिए ।
डॉ. राजेन्द्र कुमार “राजन”
अन्य पढ़ें