1. जिन्दगी दर्द का सागर
जिन्दगी दर्द का सागर बनती चली गयी
खुशी लफ़्ज महज किताबों में रह गया ।
रूह घायल और जुस्तजू का कत्ल हुआ
अरमाँ था जो कभी ख्वाबों में रह गया ।
अपनी ही खुद्दारी ने कमर तोड़ डाली
अकड़पन सिर्फ नेता नवाबों में रह गया ।
दुनियाँ के सवालों को तो मैं समझ गया
बदनसीब मैं अपने ही जवाबों में रह गया ।
“राजन” आगे बढ़ने की चाह ज्यादा थी
मगर मेरा वजूद आज हबाबों में रह गया ।
डॉ. राजेन्द्र कुमार “राजन”
2. दुश्मन ए जान
अपने वजूद को ढूंढने घर से निकला मैं
अजीब बसर मिले रस्ते में देख कर हैरान हुआ ।
नाम कमाने की चाह थी दिल में मगर
लोगों ने जाना इस कदर बदनामी से परेशान हुआ ।
हँस खेल कर जिन्दगी गुजर जाती मगर
जहाँ जान बख्शी की उम्मीद थी मौत का सामान हुआ ।
यारों की भीड़ जुटा ली चारों तरफ मगर
जिस पर भी भरोसा किया वो ही दुश्मने जान हुआ ।
“राजन” उम्मीद पर जी रहा हूँ अब तलक
यह जुदा बात है कि ना कभी पूरा अरमान हुआ ।
डॉ. राजेन्द्र कुमार “राजन”
3. फूलों से खेलना चाहा
आज फूलों से खेलना चाहा मगर काँटों ने दामन थाम लिया ।
प्यार और खुशी बाँटनी चाही थी अपनों ने दर्द ईनाम दिया ।
सोचा चाँद और तारों की रोशनी मिले अंधेरे ने सलाम किया ।
पीयूष पड़ा था सामने फिर भी यारों ने जहर का जाम दिया ।
“राजन” बेगानों से बच निकला अपनों ने काम तमाम किया ।
डॉ. राजेन्द्र कुमार “राजन”
4. किस्मत ही बिगड़ गयी
क्या करें यारों जब किस्मत ही बिगड़ गयी
घरौंदा बनायें कैसे जब दुनियां ही उजड़ गयी ।
एक एक कर के सब साथ छोड़ते चले गये
इक अक्ल पे भरोसा था वो भी बिछड़ गयी ।
अपनों की कभी सुनी नहीं थी मगर आज
गैरों का ताना सुनने की आदत पड़ गयी ।
“राजन” अश्क छुपा लिए थे आंखों ही में
जब जोर ना चला तो कुछ बूंदें झड़ गयी ।
डॉ. राजेन्द्र कुमार “राजन”
5. अपना कहर ढाता है
अब तो सब कुछ बदला नजर आता है
गैर का कहना क्या अपना कहर ढाता है ।
अब मिलेगी मंजिल सोचता हूँ मगर
हर पड़ाव इक नया सफर लाता है ।
जब भी खुश रहने की कोशिश की
एक नये गम का रूप निखर जाता है ।
खुमार में ही रहना चाहता हूँ मगर
जमाने की चोट से नशा उतर जाता है ।
डॉ. राजेन्द्र कुमार “राजन”
6. साया ए गम
यहाँ वहाँ देखूँ जहाँ साया ए गम दिखता है
गैर तो गैर अपना भी बेगाना सा लगता है ।
जियेंगे किस तरह से बिना किसी सहारे
जिसका साथ माँगू साँसों पे बोझ रखता है ।
क्या मर्ज है ये मर्ज कुछ भी नहीं है
एक घाव है पुराना जो कभी नहीं भरता है ।
जिन्दगी भर का रोना दे दिया था जिसने
हालत मेरी देख कर आज वो ही हँसता है ।
तन्हाइयों में जीने अब चल दिया मैं तो
“राजन” झूठों की महपिल में दम घुटता है ।
डॉ. राजेन्द्र कुमार “राजन”
7. शूल और काँटों की बगिया
क्यों आज बुद्धि कुंठित हो रही
दिमाग कुछ करने से मना करने लगा ।
जिस काम में भी जुटना चाहा
उससे ही हृदय मेरा मुकरने लगा ।
ऐसे हालात तो न कभी आये थे
ऐसे विचार तो न कभी समाये थे
क्यों आज मन टूट कर मेरा
इस कदर यूँ बिखरने लगा ।
आज सब सूना सूना सा लगता है
आबाद जहाँ वीराना सा दिखता है
क्यों सपनों का संसार मेरा
इस तरह यूँ उजड़ने लगा ।
“राजन” इस धोखे की दुनियाँ में
सिर्फ शूल और काँटों की बगिया में
गुजारा होगा अब किस तरह
यह सोच कर ही दिल डरने लगा ।
डॉ. राजेन्द्र कुमार “राजन”
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Very nice