Jab tum nahin ho “|” जब तुम नहीं हो !

                       जब तुम नहीं हो

दिन काटे कटते नहीं और तन्हा रातें डसती हैं, जब तुम नहीं हो ।
आहटें चौंका देती हैं मुझे और निगाहें तरसती हैं, जब तुम नहीं हो ।
नींद आँखों से दूर हुई तस्वीर तुम्हारी बसती है, जब तुम नहीं हो ।
मेरा आँगन सूखा है हर ओर बूँदें बरसती हैं, जब तुम नहीं हो ।
मैं कुछ कर सकता नहीं मजबूरियां भी हँसती हैं, जब तुम नहीं हो ।
“राजन ” अब आ भी जाओ गमजदा मेरी बस्ती है, जब तुम नहीं हो ।
डॉ. राजेन्द्र कुमार “राजन”

2.अपलक तेरी छवि निहारूँ (Poem/ कविता)

                अपलक तेरी छवि निहारूँ

अपलक तेरी छवि निहारूँ ।
काले कजरारे नयन
अधर कली से कोमल
गदराया सा यौवन
उठी प्रेम की हलचल
हृदय में यही मूरत उतारूँ
अपलक तेरी छवि निहारूँ ।
हिरनी सी मस्त चाल
स्वर सुरीला कोयल सा
नयनों में नयना डाल
मन मेरा बोझिल सा
स्वप्नों में तेरा नाम पुकारूँ
अपलक तेरी छवि निहारूँ ।
छनक छनक पायल की
छेड़े मन के तार
स्नेह भरे बादल की
बरस पड़ी फुहार
प्रीति रंग से जीवन सँवारूं
अपलक तेरी छवि निहारूँ ।
डॉ. राजेन्द्र कुमार “राजन”

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3.आज बेगाने हो गये

                  बेगाने हो गये

वो ही शहर है वो ही रास्ते वो ही लोग हैं
कल सब अपने थे आज बेगाने हो गये ।
कुछ उनसे सुनता कुछ अपनी कहा करता
कल सब हकीकत थी आज अफ़साने हो गये ।
लिपट कर मिला करते थे जो प्रेमियों की तरह
मुँह फेर कर चल देते हैं अनजाने हो गये ।
कभी मैं हँसता हूँ तो कभी वो हंसते हैं मुझ पर
या तो मैं दीवाना या ये सब दीवाने हो गये ।
कल भाव बहुत ज्यादा था मेरी बातों का
मेरी बातें मज़ाक उनके लब्ज तराने हो गये ।
“राजन” कहने को अब कुछ भी तो नहीं रहा
मेरी मजबूरियों से ज्यादा उनके बहाने हो गये ।
डॉ. राजेन्द्र कुमार ” राजन “

4.पढ़ सकूँ पर लिख नहीं पाऊँ

              पढ़ सकूँ पर लिख नहीं पाऊँ

पढ़ सकूँ पर
लिख नहीं पाऊँ
कहीं अकेले में
मैं गुनगुनाऊँ
वो कविता हो ।
प्रदीप्त आभा है
आनन की
जिसके तेज से
मैं जगमगाऊँ
वो सविता हो ।
उमंगों की तरंग में
हिलोर ले
कभी तैरूं
कभी गोते लगाऊँ
वो सरिता हो ।
षोडश कला से
परिपूर्ण हो
जिसे पाकर
मैं इतराऊँ
वो वनिता हो ।
“राजन” नशीला
यौवन है
बिना पिये ही
मैं लड़खड़ाऊँ
वो ललिता हो ।। डॉ. राजेन्द्र कुमार “राजन”

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